खामोश खड़ी अनगिनत कहानियाँ सुनाती है,
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
चढ़ती रात कमरे का दरवाजा खटकना,
मैस में बुलाया है, बाबा का
स्वर उभरना.
अनजान डर के साये में चलती वो इंट्रो पार्टी,
आज भी हौले से गुदगुदा जाती है.
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
किसी एक के कमरे में जमकर बैठ जाना,
घर से लाये नाश्ते का चट से उड़ जाना.
हँसी-ठहाकों के बीच वो भूतों की कहानी,
आज भी मीठा सा डर जगाती है.
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
छोटे जेबखर्च में बड़ी-बड़ी खुशियाँ सहेजना,
बिना बात पार्टी, अकारण वीडियो
का चलना.
सखा विलास की चाय, वो स्टेशन
की कॉफी,
आज भी अपने स्वाद को ललचाती है.
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
टंकी के बहते पानी में वो बेलौस मस्ती,
अगले ही पल तू-तू, मैं-मैं,
झींगा-मुश्ती.
ऊँगली उठाकर तुझे देख लेने की वो नादानी,
आज भी रह-रह कर हँसाती है.
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
इसकी जींस,
उसकी शर्ट से नित नया फैशन,
कुड़ी के चक्कर
में चकरघिन्नी बनने का पैशन.
कारतूस बीनने
वाले होंगे लखपति की वो धमकी,
आज भी दिल
को रोमांचक बनाती है.
थी आशियाना
वो इमारत बहुत याद आती है.
बाड़े की
रौनक, बलवंत भैया की कोठी का सूनापन,
फिल्मिस्तान
की मस्ती, कटोराताल का हुडदंग.
हर जगह की
वो अपनी नई सी शरारत,
आज भी दिल
को जिंदादिल बनाती है.
थी आशियाना
वो इमारत बहुत याद आती है.
महफ़िलें लल्ला,
जगदीश, जैन के ठिकानों की,
संसद चलती
रहती जहाँ हॉस्टल के मस्तानों की.
वो चाय,
समोसे और मंजू के पान की मिठास,
आज भी होस्टलर्स
को दीवाना बनाती है.
थी आशियाना
वो इमारत बहुत याद आती है.
मिलने का उत्साह
तो बिछड़ने का ग़म,
गले मिलते
मुस्कुराते पर आँखें रहती नम.
डायरी के पन्नों
पर सजी पते-ठिकानों की इबारत,
आज भी सबके
साथ का एहसास दिलाती है.
थी आशियाना वो इमारत बहुत याद आती है.
++
डॉ०
कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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